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अव॒ स्वयु॑क्ता दि॒व आ वृथा॑ ययु॒रम॑र्त्या॒: कश॑या चोदत॒ त्मना॑। अ॒रे॒णव॑स्तुविजा॒ता अ॑चुच्यवुर्दृ॒ळ्हानि॑ चिन्म॒रुतो॒ भ्राज॑दृष्टयः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ava svayuktā diva ā vṛthā yayur amartyāḥ kaśayā codata tmanā | areṇavas tuvijātā acucyavur dṛḻhāni cin maruto bhrājadṛṣṭayaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अव॑। स्वऽयु॑क्ताः। दि॒वः। आ। वृथा॑। य॒युः॒। अम॑र्त्याः। कश॑या। चो॒द॒त॒। त्मना॑। अ॒रे॒णवः॑। तु॒वि॒ऽजा॒ताः। अ॒चु॒च्य॒वुः॒। दृ॒ळ्हानि॑। चि॒त्। म॒रुतः॑। भ्राज॑द्ऽऋष्टयः ॥ १.१६८.४

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:168» मन्त्र:4 | अष्टक:2» अध्याय:4» वर्ग:6» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:23» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम (त्मना) आत्मा से (कशया) शिक्षा या गति से जैसे (स्वयुक्ताः) अपने से गमन करनेवाले (अमर्त्याः) मरणधर्मरहित (अरेणवः) जिनमें रेणु वालू नहीं विद्यमान (तुविजाताः) बल के साथ प्रसिद्ध और (भ्राजदृष्टयः) जिनकी प्रकाशमान गति वे (मरुतः) पवन (दिवः) आकाश से (आ, ययुः) आते प्राप्त होते हैं और (दृढ़ानि) पुष्ट (चित्) भी पदार्थों को (वृथा) वृथा निष्काम (अव, अचुच्यवुः) प्राप्त होते वैसे इनको (चोदत) प्रेरणा देओ ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे पवन आप ही जाते-आते हैं और अग्नि आदि पदार्थों को धारण कर दृढ़ता से प्रकाशित करते हैं, वैसे विद्वान् जन आप ही पढ़ाने और उपदेशों में नियुक्त हो व्यर्थ कामों को छोड़कर और छुड़वा के विद्या और उत्तम शिक्षा से सब जनों को प्रकाशित करते हैं ॥ ४ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे मनुष्या यूयं त्मना कशया यथा स्वयुक्ता अमर्त्या अरेणवस्तुविजाता भ्राजदृष्टयो मरुतो दिव आययुर्दृढानि चिद्वृथाऽवाऽचुच्यवुस्तथैताञ्चोदत ॥ ४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अव) (स्वयुक्ताः) स्वेनैव गच्छन्तः (दिवः) आकाशात् (आ) (वृथा) (ययुः) गच्छन्ति (अमर्त्याः) मरणधर्म्मरहिताः (कशया) शासनेन गत्या वा (चोदत) प्रेरयत (त्मना) आत्मना (अरेणवः) न विद्यन्ते रेणवो येषु ते (तुविजाताः) तुविना बलेन सह प्रसिद्धाः (अचुच्यवुः)। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (दृढानि) (चित्) अपि (मरुतः) वायवः (भ्राजदृष्टयः) भ्राजन्त ऋष्टयो गतयो येषान्ते ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा वायवो स्वयमेव गच्छन्त्यागच्छन्ति अग्न्यादीन् धृत्वा दृढत्वेन प्रकाशयन्ति तथा विद्वांसस्स्वयमेवाऽध्यापनोपदेशेषु नियुक्त्वा व्यर्थानि कर्माणि त्यक्त्वा त्याजयित्वा च विद्यासुशिक्षाभिस्सर्वाञ्जनान् द्योतयन्ति ॥ ४ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे वायू स्वतःच गमनागमन करतात व अग्नी इत्यादी पदार्थांना धारण करून दृढतेने प्रकाशित करतात. तसे विद्वान लोक स्वतःच अध्यापन व उपदेश करून निरर्थक कामाचा त्याग करून, करवून विद्या व उत्तम शिक्षणाने सर्व लोकांना प्रकाशित करतात. ॥ ४ ॥